पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 17

 हंसा बकु देखा एक रंग, चरै हरियरे ताल। हंस क्षीरते जानिये, बकुहि धरेंगे काल || 17 ||  

शब्दार्थ:- बकु = बगुला | हरियरे ताल = हरे-भरे सरोवर में । क्षीर = दूध । काल = काल, निरंजन, मृत्यु, समय । 

भावार्थ:- हंस और बगुला एक ही रंग के सफेद व उज्ज्वल, हरे-भरे तालाब में विचरण करते हुये देखे जाते हैं। किन्तु हंस की पहिचान नीर- क्षीर विवेक से होती है और बगुले की-मछली आदि जल जीव खाने से ।

भाव यह है कि - सत्य भक्ति करने वाले और अंधभक्ति करने वाले दोनों मानव तन में ही रहते हैं। दोनों का वेश समान ही होता है। सद्भक्त हंस जीव सार शब्द खरी वाणी ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त करता है, और कल्पित अंधभक्ति करने वालों को बार-बार काल के गाल का भोजन बनना पड़ता है।

ब्याख्या:- मनुष्यों की, आकृति व वस्त्रों से ठीक-ठीक पहिचान नहीं हो पाती। वैसे तो पहली पहिचान उसके पहनावा व आकृति से है, तथा दूसरी पहिचान उसकी वोली से, और तीसरी व खरी पहिचान उसके आचरण से होती है। वर्तमान में तो लोगों को पहिचानना और भी कठिन हो गया है, क्योंकि स्वच्छ वस्त्र पहनावा, मधुर व सौम्य भाषा में भी कुछ लोग ऐसे मिलते हैं जो मोर की तरह देखने में सुंदर और बोलने में भी मीठे होते है । किन्तु उनकी असली पहिचान तब होती है जब वे मोर की तरह साँप खाते हुये देखे जाते है । इसी तरह बगुला भी हंस की तरह उज्ज्वल रंग वाला होता है। जब वह तालाब पर नेत्र बंद कर एक पैर पर खड़ा होता है तो लगता है मानो कोई बहुत बड़ा तपस्वी ध्यानस्थ खड़ा है। लोग ऐसे ही भ्रामक अंध भक्तों के आडम्बरों को न समझ कर इन ठग गुरुओं के चक्कर में पड़ जाते हैं। अंत में बगुले की पहचान तब समझ में आती है, जब वह मछलियों पर टूट पड़ता है।

सद्‌‌गुरु कबीर साहब कहते हैं कि हंस की पहचान तो नीर-क्षीर बिबेक से होती है तथा वह तो अंदर-बाहर एक समान आचरण वाला होता है। 

हरिजन हंस दशा लिये डोलें, निर्मल नाम चुनि चुनि वोलें। 

मुक्ता हल लिये चोंच लोभावें, मौन रहे कि हरि जस गावें ।

 मान सरोवर तट के बासी, राम चरण चित अंत उदासी।

 कागा कुबुधि निकट नहिं आवे, प्रति दिन हंसा दरशन पावे । 

नीर-क्षीर का करे निवेरा, कहहिं कबीर सोई जन मेरा ।। (शब्द-34)

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट