पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 14

हंसा तूँ तो सुवर्ण वर्ण, क्या बरनों में तोहि । तरिवर पाय पहेलिहौं, तबै सरावहु तोहि || 14 ||

शब्दार्थ:- हंसा =  चेतन जीव मानव । सुवर्णवर्ण - स्वर्णिम ज्ञान प्रकाश युक्त, सर्वोत्तमज्ञानी | तरिवर= तरुवर, वृक्ष, मानव शरीर। पहलिहौ= पहेली को सुलझाना, रहस्य को जानना, पार हो जाना। सरावहु= सराहना, प्रसंसा ।

भावार्थ:-  हे चेतन हंस जीव-मानव ! तूँ सर्वोत्तम ज्ञान रंग है, मैं तेरी क्या प्रसंशा करूँ ? ! तुम्हें सर्व योनि श्रेष्ठ मानव शरीर-प्राप्त है (जो मुक्ति का सम्पूर्ण साधन ही है) किन्तु तुम्हारी सराहना में तभी कररूँगा, जब तुम मुक्ति प्राप्त कर भव से पार हो जाओगे।

व्याख्या:- हंस का उदाहरण एक ऐसे पक्षी से है जो दूध में मिले पानी को अलग कर दूध पी लेता है। कहते हैं हंस मोतियों को खाता है और वह मान सरोवर जैसे स्वच्छ व विशाल सागर में रहता है, उसका रंग भी बड़ा सुन्दर साफ, स्वच्छ व सफेद होता है, वह अपने ऊपर कोई दाग पसंद नहीं करता।

कबीर साहब जीव-मानव की तुलना ऐसे ही हंस से करते हैं। वस्तुतः जीव सर्वश्रेष्ठ, स्वच्छ, सम्पूर्ण, अजन्मा, अखंड, अदाध्य, अशोष्प, अवध्य आदि विशेषणों से परिपूर्ण है। किन्तु वह निरंजन के वह‌कावे में आकर इस सृ‌ष्टि रचना में विमोहित हो पतित हो गया है।

अब जीव को मानवतन' अमूल्य निधिप्राप्त है जो मोक्ष का संपूर्ण साधन ही है यदि वह अब भी चूका तो पुनः नारकीय योनियों में भटकेगा इसलिये सद्‌गुरु कहते हैं कि अब तूँ मुक्ति के रहस्य को जान, भवसागर पार करे, तो तेरी प्रशंसा करूंगा।

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