पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 4

शब्द‌ बिना सुरति आंधरी, कहो कहां को जाय।द्वार न पावै शब्द का, फिर फिर भटका खाय ॥4॥

शब्दार्थ:- शब्द = अखंड ध्वनि । आंधरी = अंधी, विवेकहीन |

द्वार = दरवाजा | भटका= बार-बार गर्भ-प्रवेश।

भावार्थ:- जीव की सुरति शब्द के बिना बिबेकहीन (अंधी) है, भला ऐसी दशा में वह कहाँ जा सकती है। उसे शब्द का दरवाजा भी नहीं मिलता, (क्योंकि उसका रुख संसार की ओर हो गया है) इसलिये शरीरस्थ कर्मानुसार लौट-लौट कर बार-बार गर्भ-योनि संरचना में भटकना ही उसकी पराधीनता बन गई है।

व्याख्या:- ब्रह्माण्ड के सिद्धान्त रूप सृष्टि क्रम में ध्वनि तरंग का विशेष महत्व है, एक तरह से यह कहा जाय कि यह संचालन एक विशेष प्रकार की तरंग प्रकिया पर ही आधारित है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि यह प्रयोगिक सत्य है।

इस वायु मंडल के आकाश तत्व में भरे ईथर नाम के पदार्थ माध्यम से हम एक दूसर को बात-चीत को ध्वनि तरंग के माध्यम से ही सुन पाते हैं। यह पदार्थ व ध्वनि तरंग हम आँख इन्द्रिय से नहीं देख सकते, जैसे रेडियो धर्मी तरंग, मोवायल, टी-वी. प्रसारण में चित्र व ध्वनि, बिना उपकरण के हम देख नहीं पाते, ठीक वैसे ही यह अखण्ड ध्वनि प्रसारण सृष्टि के पूर्व से ही है।

यह साश्वत ज्ञान तब भी था जब हम और आप नहीं थे जब दुनियाँ ही नहीं थी, तो क्या हम उसे अंध विश्वास कहकर नजर अंदाज कर दें?.......

ऐसे ही कुछ लोगों ने, जो दिखता है उसी पर विश्वास करके बाद बांकी अगोचर व्यवस्था बिल्कुल न मानकर आध्यात्म के साथ खिलवाड़ किया है। कृपया समझने का प्रयास करें। तभी तो सद्‌गुरु कबीर साहब ने समझ और बूझ तथा बिबेक को बड़ा ही महत्व दिया है। बिना समझ के संसार भी अधूरा है तथा आध्यात्म भी ।

सद्‌गुरु कबीर साहब ने अपने उस एक अखण्ड शब्द के गुण को बड़े ही सटीक उदाहरण के द्वारा समझाने का प्रयास किया है, जो वैज्ञानिक है . यानि परिभाषा व प्रयोग (थ्योरी व प्रेक्टिकल)। उनके उस एक शब्द में इतनी ताकत है कि -

चुम्बक लोहै प्रीत है, लाहे लेत उठाय । ऐसा शब्द कबीर का, काल सों लेत छुड़ाय ॥ साखी 318

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