पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 10
जो जानहु जिव आपना, करहु जीवको सार । जियरा ऐसा पाहुना, मिलै न दूजी बार || 10 ||
शब्दार्थ:- सार = सत्य पहिचान, स्वरूप स्थिति | पाहुना - मेहमान | दूजी = दोबारा । बार = समय
भावार्थ:- यदि अपने आप को जानना चाहते हो तो स्वरूप स्थिति को प्रयोगिक जानना होगा (वह भी मानव देह से समय-सीमा के अंतर्गत ही) क्योंकि यह जीव दशा प्राप्त मानव देह मेहमान की तरह है न जाने कब चली जाय और दोबारा लौटकर न आये ।
ब्याख्या:- जीव को हम सदा छोटा, तुच्छ, प्रति बिम्ब, अंश आदि मानते आये हैं और हमारी यह मान्यता बहुत दृढ़ हो चुकी है। चलो माना कि ऐसा ही है किन्तु इसकी परीक्षा तो करके देख लो, नहीं तो झूठ मान्यता में फंसे और-और नीचे ही गिरते जाओगे। क्योंकि तुम्हारी सोच बहुत छोटी व नकारात्मक है। व्यक्ति जैसा सोचता है वह वैसा ही होता जाता है। तुमने कभी अपना स्वरूप नहीं जाना इसलिये ऐसा होता है आज समय है, समझो आत्मा (स्वयं स्वरूप) है, सर्वोच्च सत्ता है, यथार्थ है, प्रयोगिक है।
मानव शरीर कल्याण करने का साधन है यह विवेक प्रधान योनि देह है इसी देह में जीव परम शांति की खोज कर विश्राम पा जाये यही जीव का सार है। नहीं तो यह मेहमान की तरह है, चला गया तो पता नहीं लौटकर दोबारा आये या न आये।
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