पार्ट 4 प्रकरण 4 साखी 13
हंसा मोती विकानिया, कंचन थार भराय । जो जाको मरम न जाने, सो, ताको काह कराय || 13 ||
शब्दार्थ:- हंसा = जीव मानव, विवेकी । मोती = मुक्ति । बिकानियाँ = बिकता है। कंचन थार = स्वर्णथाली, अनुभव ज्ञान । मरम = भेद | जाको = इसका | जो = जो व्यक्ति ।
भावार्थ:- हे हंस (बिबेकी) जीव मानव ! मुक्ति रूपी मोती सत्संग रूपी सोने के थाल में भरकर अनुभव रूप सदा बिक रहे हैं। किन्तु जो व्यक्ति इसका भेद नहीं जानता उसका क्या किया जा सकता है ?
व्याख्या:- संसार में मुक्ति के चाहने वालों की कमी नहीं है परन्तु वे सद्गुरु का आधार न पाकर अन्यत्र भटक जाते हैं। जिज्ञासु समझ नहीं पाता कि यह गुरु है, ठगगुरु है, या फिर सद्गुरु ही हैं। वह अपना तन, मन, धन सबकुछ देने को तैयार होता है, वर्तमान स्थिति के अनुसार तो ठग-गुरुओं का मेला लगा है और सद्गुरु मिलना कठिन है।
ऐसे में वह निर्णय नहीं कर पाता और इन वंचक गुरुओं के द्वारा ठगा जाता है, यह उसके लिये सबसे बड़ी विडम्बना है। उसे शीघ्रता न करके समझना चाहिये।
गुरु गुरू में भेद है, गुरु गुरु में भाव । सद्गुरु सोई बंदिये, जो शब्द लखावै दाव ।। (अमृतवाणी)
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