पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 3
शब्द हमारा आदि का, शब्दै पैठा जीव । फूल रहनि की टोकरी, घोरे खाया घीव ॥3॥
शब्दार्थ:- आदि = सृष्टि के प्रारम्भ का | शब्दै = शब्दमय, भ्रामक शब्द | फूल = प्रसन्नता, पुष्प | टोकरी= डलिया, शरीर | घोरे = घोर, मट्ठा, छाछ, कल्पित वाणी। खाया= नष्ट किया, समाप्त किया । घीव = घी, जीव। पैठा = रमा, प्रवेश |
भावार्थ:- सद्गुरु कहते है कि- हमारा शब्द सृष्टि के आरम्भ का है, तथा जीव का रमण शब्दमय ही हुआ है (या शब्द के ही द्वारा जीव को शरीर में रमाया गया)। सर्वप्रथम शरीर रूप टोकरी में' रहने पर जीव बड़ा प्रसन्न हुआ, और अब मानो प्रचलित भ्रान्तिपूर्ण कल्पित वाणी रूप छाछ ने घी रूप जीव को खाही लिया हो।
ब्याख्या:- "शब्द हमारा आदिका"- यहाँ सदगुरु ने केवल 'शब्द' कहकर एक वचन का ही संकेत किया है बहुवचन नहीं, फिर भी लोगों ने 'हमारे निर्णय शब्द' कह कर सिद्धान्त को चोट पहुँचाने जैसा नादानी भरा प्रयास किया है। यह उचित नहीं है।
"शब्दै पैठा जीव” शरीर रचना के पश्चात शब्द (एक प्रकार की ध्वनि) गुंजार से ही जीव प्रवेश प्रक्रिया रूप स्वचालित सृष्टि प्रारम्भ हुई है। जैसे भृंगी नामक कीट किसी मृत कीट को लाकर शब्द गुंजार के द्वारा उसे जीवित कर सृष्टि चलाता है यह उदाहरण आज भी है।
सद्गुरु अनेक तरह से बहुवचन द्विवचन तथा एक बचन के रूप में लोगों को समझाते रहे हैं किन्तु साथ-ही साथ अपने एक विशेष शब्द के लिये जगह-जगह संकेत भी करते रहे हैं-
एक शब्द गुरुदेव का, ताका अनंत बिचार। थाके मुनिजन पंडिता, वेद न पावै पार ।।(साखी 125)
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वह तो शब्द विदेह । जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि लेह ॥ (साखी 35)
शब्द हमारा आदि का, पल पल करहू याद । अंत फलेगी मांहली, ऊपर की सब बाद।। (साखी-7)
सृष्टि के आरम्भ में संचालन के लिये जीव का रमण, शब्द के द्वारा कराया गया या हुआ और अब तो दौड़-दौड कर जीव इस व्यवस्था को प्राप्त करता है। क्योंकि उसे अपनी सुधि नहीं रही तथा वापस जाने का रास्ता भी नहीं मिलता। शरीर रूपी मन्दिर स्नेह मोह भरा है. भले ही जीव को लाख कष्ट हों फिर भी वह शरीर धारण करता ही है। -मन्दिर तो है नेह का, मतिकोई पैठो धाय । जो कोई पैठेधायके, बिन सिर सेती जाय । (साखी रमेनी 22)
इसलिये सद्गुरु ने रोका भी है और वह आदि के अखण्ड शब्द का रास्ता भी दिया है।
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