पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 1

जहिया जन्म मुक्ता हता, तहिया हता न कोय | छठी तुम्हारी हौं जगा तू कहाँ चला बिगोय 1 

शब्दार्थ:-  जहिया = जहां पर जिस समय। जन्म = जन्म-लेना, जन्मना । मुक्ता = मुक्त, कोई बन्धन नहीं। हता = था । तहिया = तहाँ, वहाँ। नकोय = कोई नहीं। छठी = हंस देह, (1- स्थूल, १- सूक्ष्म, 3. कारण, 4 महाकारण, 5- कैवल्य, 6 हंस)। हौं = अहंकार, मैं अपूर्व हूँ। बिगोय = गवाँना, बहकाना, भुलाकर, बिनास की ओर।

भावार्थ:-  सद्‌गुरु कबीर साहब साखी प्रकरण के प्रारम्भ में उस परम शक्ति, असीमितज्ञान, अजन्मा, पारब्रह्म, परम हंस शक्ति को अपने ही अहंकार व नकारात्मक इच्छा के कारण स्थूल शरीर में 'जीव दशा' लिये, मानव को संकेत कर ‌पूर्व स्थिति का भान कराने की कोशिश करते हुये कहते हैं। 

जहिया किरतम ना हता, धरती हतो न नीर। उतपति परलय ना हती, तबकी कहें कबीर ।। (साखी २०३)

जहाँ पर जन्म से मुक्त था (यानि जन्म नहीं-तो मरण नहीं) अर्थात सृष्टि से पूर्व स्थिति, वहाँ पर कोई नहीं था (केवल तूं ही असीमितज्ञान)। इस सातवीं भूमिका में अपने ही अहं ' मैं अपूर्व हूँ '  के कारण छठी अवस्था या शरीर हुआ और अब स्थूल शरीर मानव जन्म में भी तू अपनी पहचान भुलाकर बिनास को ओर कहाँ चला जा रहा है।

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