पार्ट 4 प्रकरण 11 साखी 2

साखी - 2

शब्द हमारा तू शब्द का. सुन मति जाहु सरक। जो चाहो निज तत्व को, तो शब्दहि लेहु परख ॥2॥

शब्दार्थ:- शब्द = एक प्रकार की ध्वनि । सरक= खिसकना, भागना । निजतत्व = अपने आप की जानकारी, मैं कौन हूँ । परख = परीक्षाकर प्रयोगिक ।

भावार्थ:-  हे जीव मानव ! जो शब्द हमारा है उसी शब्द से तुम हो (अर्थात जो स्वरूप हमारा है वही तुम्हारा है बस अंतर केवल इतना है कि हमें शब्द याद है और तुम भूल गये हो) इतना सुनकर भाग मत जाना। यदि तुम्हें अपनी (निज रूप की ) जानकारी चाहिये तो मेरे शब्द की प्रतीक्षा कर लो। (परख करना = परीक्षा करना है, प्रयोग करना है) 

व्याख्या:-   सद्‌गुरु साखी प्रकरण के प्रारम्भ की कुछ साखियों में' सृष्टि का भेद बताते हुये कहते हैं कि- सृष्टि रचना से पहले सत्य परम चेतन अखण्ड ज्ञान के द्वारा एक अखण्ड ध्वन्यात्मक शब्द उच्चारित हुआ, जो सृष्टि का असल भेद है अतयेव इसके सिवा आदि का भेद‌ आज तक किसी ने भी स्पष्ट नहीं कर पाया। यह शंका सदा से ही रही है कि पहले 'अण्डा था या मुर्ग़ी ।इस सत्य अखण्ड शब्द से एक अण्ड ओंकार प्रकट हुआ जिससे सभी चारों खानियों की रचना का विस्तार है। वही शब्द संकेत आज वापसी के लिये, सद्‌गुरु जीव-मानव मात्र से कहते हैं क्योंकि जीव‌-मानव अन्यान तरह से भ्रामक शब्दों में फँस गया है। और वह अनेकानेक कष्टों को सहता हुआ सत्य मार्ग की तलाश में भटकता फिर रहा है-

साधो शब्द साधना कीजै 

जेहिं शब्द तें प्रकट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै 

शब्दहि गुरु शब्द सुन सिष में, शब्द सो विरला बूझै ।

सोई सिस सोइ ‌गुरु महातम, जेहि अंतर गति सूझे

शब्दै वेद पुरान कहत हैं, शब्दे सब ठहरावे 

शब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, शब्द भेद नहिं पाये 

शब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, शब्द कहें अनुरागी ।

षट दर्शन सब शब्द कहत हैं, शब्द कहें बैरागी

शब्दै माया जग उत्पानी, शब्दै केरि पसारा

कहैं कबीर जहाँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।

सृष्टि में शब्द की जानकारी केवल दो प्रकार से है, एक वर्णात्मक दूसरा ध्वन्यात्मक ! लेकिन एक शब्द तीसरा भी है जो सदा अखण्ड रूप स्वयं आज भी ध्वनित हो रहा है उसे ही सार शब्द कहते हैं। वर्णात्मक शब्द दो या दो से अधिक वर्णों के मेल से बनता है, अथवा ध्वन्यात्मक शब्द शरीर व्यवस्था में अनाहत नाद के रूप में' सुने या जाने जाते हैं जो दश प्रकार के होते हैं। अधिकतर जीव मानव इन्ही ध्वन्यात्मक शब्दों में अपनी पूर्णता या मुक्ति मान लेते हैं, उन्हें यह पता नहीं होता कि यह शरीर के अन्दर की व्यवस्था है शरीर नष्ट होने पर यह माया गायब हो जायेगी। अब बेचारा जीव-मानव करे तो क्या करे? उसे स्थाई मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता। 

क्योंकि- शब्द बिना सुरति आंधरी, कहो कहां को जाय ।

  द्वार न पावै शब्द का, फिर फिर भटका खाय 

सद्‌गुरु के इन शब्दों से स्पष्ट होता है कि जीव का सुरति रूप फंसाव संसार रसृष्टि में हुआ, कारण शब्द रहा। और अब वह उसी शब्द से वापस हो सकता है अन्यथा नहीं । सुरति को हम आसक्ति भी कह सकते हैं अतमेव सुरति का भावार्थ है चेतन शक्ति का रुख "चेतन शक्ति के बहाव की दिशा' ख्याल' 'याद' आदि।


यदि जीव-मानव अपनी चेतन शक्ति के दवाव द्वारा सुरति रूप रुख का मोड़ सद्‌गुरु के बताये अखण्ड शब्द की ओर करे तो उसे अपने असल स्वरूप ज्ञान का अनुभव स्वयं हो जायेगा। यह प्रयोग करके देख लें अन्यथा झूठ मान लें किन्तु साधन अभ्यास के बिना मन गढ़ंत झूठ कहना सबसे बड़ा अन्याय व अधर्म होगा।


यदपि 'सुरति' को किसी-किसी ने मन भी कहा है, उन्हें शायद बीजक में' कही गई सद्‌गुरु की बातों का सही अनुमान न हो। जैसे-

मन गयंद माने नहीं, चले सुरति के साथ । महावत बिचारा क्या करे, जो अंकुश नाहीं हाथ ।।

इससे पता चलता है कि मन व सुरति दो अलग-अलग व्यवस्था हैं भले ही मन वापसी में भी सुरति के साथ जाता हो किन्तु इसका रुख सदा संसार की ओर ही है यह अधिक चंचल होने के कारण जीव की दुर्दशा का मूल बना हुआ है। यह वर्तमान में तीनों लोकों स्वामी बना हुआ है।

नैनन ओगे मन बसै, पलक-पलक करे दौर। तीन लोक मन भूप है, मन पूजा सब ठौर ।। (साखी 238)

इसकी शक्ति अपरिमित है, यही कालपुरुष है, निरंजन है, अनंत स्वरूप वाला है। 

मैं सिरजों मैं मारहूँ , मैं जारों मैं खाँव ।जल थल में ही रमिह्यो, मोर निरंजन नाँव । (रमैनी 21 साखी )

मनीषियों तथा मनोविज्ञान आदि विषयों के आधार पर किसी हद तक मन की शक्ति को पहचाना जा सका है जो निम्न प्रकार है-

आकाश में चमकने वाली विद्युत् के एक कम्पन के समय में, तीस खर्ब कम्पनें करने वाला यह मन है। इसी प्रकार आकाशीय विद्युत की एक झलक डेढ़ करोड़ बोल्ट की होती है तो मन की एक कम्पन साढ़े चार सौ शंख बोल्ट की होती है। तथा इस आकाशीय विद्युत की एक कम्पन (चमक) में दो हजार पाँच सौ मिलियन किलो वाट शक्ति है तो मन में साढ़े सात पदम मिलियन किलो वाट शक्ति है।

मन सायर मनसा लहरि, बूड़े बहुत अचेत । कहहि कबीर ते बांचि हैं जाके हृदय बिबेक ॥ (साखी 107)

मन स्वारथी आप रस, विषय लहरि फहराय। मन के चलाये तन चले, जाते सरबस जाय ।। (साखी 239)

यह मन संसार सृष्टि में फँसाने वाला है, तरंग उत्पादक है तथा यह स्वयं शक्तिशाली नहीं है अपितु आप से ही शक्ति लेकर शक्तिशाली बना है तभी तो सद्‌गुरु ने इसे ठग, झूठा, चोर आदि नामों से सम्बोधित किया है।

तीनि लोक चोरी भई, सबका सरबस लींह । बिना मूंड का चोरवा , परा न काहू चीन्ह ।(साखी 28)

इसलिये सद्‌गुरु साहब ने मन से नहीं, अपितु सुरति से अपना ठिकाना जानने का संकेत किया है तथा सुरति को अखण्ड, आदिके, ध्वन्यात्मक शब्द का आधार आवश्यक है। जो चाहो निजतत्व को तो शन्दहि लेहु परख यदि निज तत्व की पहिचान करना है तो 'शब्द' को परखना पड़ेगा । परख कहते हैं प्रयोगिक ‌प्राप्त निष्कर्ष को, और पारखी कहते है प्रयोग कर्ता को । अतः प्रयोग करने के लिये उसमें प्रयुक्त होने वाले उपकरण तथा नियमों का पालन व परिभाषा का सही ज्ञान होना आवश्यक हैं। यदि परिभाषा गलत है तो निष्कर्ष सही नहीं हो सकता अत्येव केवल परिभाषा याद कर लेने से कोई पारखी नहीं हो जाता बल्कि उसे प्रयोग भी करना होता है। तत्पश्चात जो निष्कर्ष (परिणाम) निकलता है वह सत्य होता है। कृपया बिना' प्रयोग के किसी की भी बात को सही न ठहरायें चाहे वह भौतिक जगत हो अथवा आध्यात्म । क्योंकि आध्यात्म तो खरा विज्ञान हैं इसमें मन गढ़त व अंध विश्वास की कहीं भी कोई जगह नहीं है। इसलिये

मूरख को सिखलावते, ज्ञान गाँठि का जाय )

कोइला होय न ऊजरा, सौ मन साबुन लाय ।।

(साखी 161)


अमृत केरी पूरिया, बहु विधि दीन्ही छोरि ।

आप सरीखा जो मिले, ताहि पियावहु घोरि ।। (साखी 121)


बस ! समझदार को संकेत पर्याप्त है।

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